गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

जन से खिसकता तंत्र .....




                   कहा जाता है की अब तक ज्ञात सभी तंत्रों में जनतंत्र अथवा लोकतंत्र ही एक ऐसी शाशन-पद्धति है ,जिसमें लिए गए निर्णय वास्तविक रूप से रूप से जनता की अभिव्यक्ति तथा जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते है ।प्रत्यक्षतः जब इस काम को करने में जनता असमर्थ होती है ,तब जनप्रतिनिधियों के माध्यम से वह अपने विचारों व भावनाओं के अभिव्यक्ति की उम्मीद करती है ।जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे जनता के हितों तथा उनके सर्वांगीण उत्थान के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्णय लेंगे ।किन्तु आज क्या हो रहा है ?जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जो प्रत्येक सर्वेजनिक मंच पर जनहित की बात करते नहीं अघाते है ,संसद में मतदान के वक्त अपना मत क्यों नहीं व्यक्त कर पातें हैं ?वास्तव में हमारी आज की जनतांत्रिक पार्टियों का जनता से कोई सरोकार रह ही नहीं गया है ।आज इनको इसकी परवाह नहीं है कि एफडीआई से देश के लोगों का भला होगा या नुकसान ।इनको परवाह बस इस बात की है की किसी न किसी प्रकार जोड़-तोड़ करके इनकी राजनीतिक दुकान चलती रहे ।अपना उल्लू सीधा करने के इस प्रयास में आज की ये राजनीतिक पार्टियाँ बाहर से कुछ और तथा अन्दर से कुछ और का दुहरा मानदण्ड अपना रही हैं ।इनका अपना खुद का कोई एजेंडा ही नहीं रह गया है ,एन मौके पर अपना राजनीतिक हित साधने वाली ये पार्टियाँ अपना एजेंडा बदलती रहती हैं ।ऐसा कैसे संभव है कि एक प्रमुख राजनीतिक दल के मुखिया ,जो एफडीआई के खिलाफ राष्ट्रव्यापी बन्द में शामिल हो ,वह संसद में मतदान के अवसर पर इस मसले पर अपने सदस्यों के साथ मतदान किये बगैर चला जाये ।इसी प्रकार अन्य दलों जैसे बसपा ,द्रमुक आदि के रवैये में भी बिरोधाभास दिखाई देता है ।बसपा की मुखिया सुश्री मायावती जी का कहना है कि प्रोन्नति में आरक्षण के बदले में हम एफडीआई के मुद्दे पर सरकार का साथ देंगे ,अन्यथा हम एफडीआई का विरोध करते है ।अब इनको अपने ज्ञानी मष्तिष्क से यह जवाब भी देना चाहिए कि निर्णयों के अदला-बदली के इस खेल में कैसे उन्होंने एक मुद्दे से जुड़े लाभ की तुलना पूरी तरह से भिन्न एक दूसरे मुद्दे से की ?मायावती जी का यह कहना की 'हमें यह भी देखना है हम सांप्रदायिक ताकतों के साथ न खड़े हो ' किसी के गले नहीं उतरने वाला तर्क है ।सभी जानते है कि इन्ही ने कई बार भाजपा की नीतियों का समर्थन किया है और गठबंधन सरकार तक बना चुकी है ।मायावती जी का यह बयान केवल राजनीतिक अवसरवादिता का एक वृकित रूप दर्शाता है ।जिस मुद्दे पर सदन से बाहर तथा सदन से अन्दर चर्चा तक बहुमत इसका विरोध कर रहा हो ,सदन के मतदान में उसका पारित हो जाना इन राजनीतिक दलों की कथनी व करनी में फर्क दिखलाता है ।आज जब हमारी जनतांत्रिक पार्टियों तथा जनता द्वारा चुने गए राजनेताओं का व्यवहार इस तरह का होगा तो जनता में कैसा सन्देश जायेगा ?बात-बात पर संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देने वाले हमारे माननीय राजनेताओं को यह समझना पड़ेगा कि हमारे संसद की सर्वोच्चता इसके सदस्यों द्वारा सदाचरण तथा जनता के प्रति जवाबदेही से ही निर्धारित होती है ।यदि ऐसा नहीं हो रहा हो तो जनतंत्र क्या किसी भी तंत्र से जनता का मोहभंग वाजिब ही है ।

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