रविवार, 23 दिसंबर 2012

आखिर कब बदलेगा तंत्र ....

           
            आज दिल्ली की सड़कों पर एक बार फिर सरकार पर प्रदर्शनकारियों का गुस्सा फूट पड़ा ।हजारों लोगों के समूह ने जनपथ ,राष्ट्रपतिभवन ,मंत्रियों तथा सोनिया गाँधी के आवास का घेराव किया ,और दोषियों को सख्त से सख्त सजा देने तथा भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के सन्दर्भ में सरकार से जवाब माँगा ।हमारे एक मंत्री का जवाब भी आ गया कि भावनाओं में बहकर तंत्र नहीं चलता ,यह एक प्रक्रिया के तहत चलता है ।बेशक मंत्री जी का यह कहना बिलकुल सही है कि दोषियों को सजा हमारे सांविधिनिक व्यवस्था के अन्तर्गत ,न्यायालयों द्वारा प्रदान की जाएगी ,परन्तु जिस तंत्र की दुहाई हमारे मंत्री जी दे रहें है ,क्यों उस में  इसी तरह से हजारों बलात्कार के मामले लंबित पड़े है ?और क्यों आधे से अधिक मामलों में दोषी बिना सजा पाए छूट जाते हैं ?बलात्कार की यह कोई नई घटना नहीं है ,आये दिन हमारे समाज में ऐसी वहशियाना घटनायें घटती रहती है ।तब इनको क्यों नहीं ये महसूस हुआ कि हमें तन्त्र में सुधार करने की जरुरत है ? यदि पहले से ही हमारी व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त होती और इस प्रकार के घृणित कृत्यों के प्रत्येक दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी गयी होती तो क्या आज इंसानियत को शर्मसार करने वाली तथा हैवानियत की सीमा लांघती ऐसी ऐसी घटनाएँ हमारे समाज में घटित होती ?
             
                 लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं ,किन्तु आज जनता इन जनप्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है ।किसी भी कानून की मांग तथा कार्यवाही को लेकर सत्ता के मद में चूर हमारे राजनेताओं को के कानों में तब तक जूं नहीं रेंगती ,जब तक इन्हें अपने कुर्सी के खतरे की घंटी नहीं सुनाई देती है ।आखिर क्यों हमने इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है ?केवल इसी लिए कि ये अपने दस जनपथ और बीस जनपथ स्थित राजमहल में सोते रहें और बाहर जनता अपने न्याय ,सुरक्षा तथा अधिकारों के लिए चिल्लाती रहे ।नहीं साहब !ये भीड़ आज ये चीख-चीख कर कह रही है कि बस बहुत हो चुका ,आज चाहे हम हों या हमारे शासन तंत्र के नुमाइन्दे हों अथवा वीभत्स मानसिकता लेकर हमारे समाज में ही पले-बढ़े ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वाले आसामाजिक तत्व , सभी को बदलना होगा ।इनमे से जो भी स्वेच्छा से इस बदलाव को नहीं अपना सकता तो उसे मजबूर करना हम सभी की तथा इस समाज की जिम्मेदारी होगी ,फिर भी ना बदलने पर पर इस सामाजिक दायरे से उसके निष्कासन की जिम्मेदारी भी हमारी ही होगी ।मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की ये लाइनें आज सटीक ही बैठती है ----
                                         
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

4 टिप्‍पणियां:

  1. main aap se bilkul sahmat hun,aurte/ladkiyan is ubharte hue bharat mein shiksha/samman/ tatah aapne civil rights ki puri hakdar hain...

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  2. aap sabhi ka danyavad ,,,mera blog padhne or us par pratikriya dene ke liye.....

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