सोमवार, 10 दिसंबर 2012

ये रात



हमारे अन्तर्मन की ,
ये रात गहराती जा रही है ।
ये घुप अँधेरा ,
जो हमारी त्वचा से होकर ,
दिल की गहराइयों तक उतर चुका है ।
कभी भागता था ,
हमारे शरीर के संसार में प्रकाशित ,
अनुभूतियों के सूरज से ।
अनगिनत अणुओं के संलयन से ,
उपजित होती असीमित किरणें ,
जो करती थी रौशन ,
अपने को ,
अपने चारों तरफ बिखरे जहान को ।
उनमे से कोई किरण ,
आज नजर नहीं आ रही है ।
हमारे अन्तर्मन की,
ये रात गहराती जा रही है ।
जिस सूरज की लालिमा से ,
जीवन के फलक पर पर बिखरा हुआ ,
कुहरा छंट जाया करता था ।
जिसकी सांसों की गर्मी से ,
नित नया जीवन ,
प्रज्वलित हुआ करता था ।
उसे आज इस स्याह चादर ने ,
ढँक लिया है ।
इस शरीर-संसार के हर कोने को ,
शब ने अपने आगोश में कस लिया है ।
जाने कौन सा पहर है ये ,
रात अभी कितनी बाकी है ?
हे निशा !तेरे सिवा यहाँ ,
ना मय है और न साकी है ।
धूप और छाँव का ,
दिन और रात का ,
ये खेल सदैव चलता रहेगा ।
कभी अपने लिये ,
कभी अपने बनाये इस संसार के लिये ,
ये अन्तर्मन सदैव लड़ता रहेगा ।
 
                     (सच्चिदानन्द तिवारी )

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