शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

प्रगति

नित बदलती इस धरा का रूप अब क्या हो गया है ।
थे शुशोभित हरित उपवन नाश सबका हो गया है ।।
सप्त स्वर से गूंजते वे पक्षियों के मधुर कलरव ,
मंद शीतल वायु के झोंको से विचलित पेड़ पल्लव ।
हरित उपवन से शुशोभित ,काले बदरों से अलंकृत ,
इस धरा और आसमां का रंग क्या अब हो गया है ।
नित बदलती --------------------------------------

समय बदला और ये विज्ञान का अब युग है आया ,
मानवी हित अहित ,संसाधन को अपने साथ लाया ।
इन पहलुओं को समझकर, पग बढ़ा तू इस डगर पे ,
सृजित कर यह लोक अपना धूसरित सा हो गया है ।।
नित बदलती ---------------------------------------

हो रही खोजों  से  नितदिन रो रही यह प्रकृति अपनी ,
दूषित जल- भूमि -मारुत से त्रसित यह प्रकृति अपनी
पूजते थे इस धरा को ,नमन करते आसमां को ,
क्या होगा क्या था तू मानव ,क्या तुझे अब हो गया है ।।
नित बदलती -----------------------------------------

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                         सुनामी

चलती ही जा रही थी ,
गाड़ी ये इस सफ़र में ।
मदमस्त थे मुसाफिर ,
इस राह -ऐ -जिन्दगी में ।।

तकनीक की जिस देश के ,
कायल थे दुनियावासी ।
मशगूल अपनी लय में थे ,
उस देश के निवासी ।

लोगों को क्या पता था ,
क्या घटित होगा कल भला ।
सिहरित हुई थी धरती ,
तोयधि से उठा जलजला ।

उठते हुए जलधि से ,
ये सर्प रूपी ज्वार ।
करते हुए सजीव व निर्जीव का संहार ।।

कंपकपाती हुई धरती ,
सिहरता हुआ आकाश ।
दबते, बहते ,कुचलते लोग ,
कैसा है यह विनाश ।।

विज्ञान के बनाये ,
इस शहर का ये मंजर ।
प्रकृति की लघु गर्जना से ,
हो गया है बंजर ।।

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