बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

मेरा गाँव ,मेरा बचपन ....

पड़ोस में उतरते हुए गुड़ की 
वो भीनी सी महक ,
दौड़ा ले जाती थी हमको ,
चेनगे की तलाश में ।

आम के बौरों के रस से ,
पेड़ों के नीचे लसलसाई पत्तियाँ ,
जो हमारे पैरों में ,
चिपक जाया करती थी ।
और उठती थी ,
एक मीठी सी महक ,
जब पुरवाई छूकर हमारे शरीर को ,
सर्र से निकल जाया करती थी ।


ओसारे में लगा हुआ ,
गौरया का इक घोंसला ,
अम्मा की नजरों से बच कर ,
जिसमे हम रोज झाँका करते थे ।
आज अंडे से बच्चे निकल गएँ होगें ,
ये सोचकर नित्य ताका करते थे ।।


कोहले में पानी भरकर ,
लटका दिए जाते थे नीम की डालियों से ,
और बिखेर दिए जाते थे ,
जमीन पर चावल के कुछ तिनके ।
सुबह होती थी ,
गौरया के चहकते आवाज से ,
कबूतरों के गुटर -गूं से और चर्खियों के अल्फाज़ से ।।

स्कूल की खाली बेला में हम ,
दूर खेतों पर निकल जाते थे।
तोड़ते थे बेर और इमलियाँ ,
सरसरे कैथों पर चढ़ जाते थे ।।
मस्टराईन के खेतों से मटर की फलियाँ तोड़कर ,
खाते हुए हम वापस आते थे ।।


वो फैली हुई सरसों के खेतों में  ,
याद आता है बीच से होकर निकलना ।
पीली -पीली अनगिनत पंखुड़ियों का ,
सर से पांव तक चिपकना ।।

ललकी गैया को चराने ,
दूर तक निकल जाना ,
वापस आकर माँ के हाथो की ,
चुपड़ी रोटी ,साग और भात खाना 


याद है जब कोकिलों के साथ ,
हम भी कूका करते थे ।
उसके चुप होने तक ,
इक संग्राम छेड़ा करते थे ।।
ये लड़ाईयाँ बदल गयी आज ,
जीवन की लड़ाई ने अपना स्थान ले लिया है ।
गाँव छूट गया, बचपन बीत गया ,
शहरों ने वो खोया सोपान ले लिया है ।।










1 टिप्पणी: