मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

यादों के झरोंखों से.......

                रक्षाबंधन की छुट्टियों की वजह से मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग का रमन छात्रावास लगभग खाली सा हो गया है ।अधिकांश छात्र अपने घर जा चुके हैं और कुछ जाने की तैयारी में लगे हुए है। रमन भवन के छोर पर स्थित कमरा नंबर 126 में खिड़की के पास बैठा मै बाहर खेल के मैदान को तथा छात्रावास के पीछे हरे वृक्षों से आच्छादित जंगल को निहार रहा हूँ ।
                कल शाम को यह क्रीड़ाक्षेत्र लोगों से भरा हुआ था ।व्यायामशाला में लोगों का आवागमन  बास्केटबाल कोर्ट पर जमघट ,टेनिस कोर्ट पर लुत्फ़ उठाते कुछ छात्र ,क्रिकेट मैदान के चारों  तरफ बने एथेलेटिक्स सर्किट पर दौड़ लगाते युवाओं का झुण्ड तथा घास के मैदानों पर खुली हवा में योग व प्राणायाम का अभ्यास करते कुछ वरिष्ठ नागरिक इत्यादि दृश्य कल तक यहाँ देखे जाते थे ,किन्तु आज इक्का -दुक्का लोग ही मैदान में दिखाई पड़ रहे हैं ।अचानक हुए इस एक ही दिन के द्रुत परिवर्तन को देखकर ,कुछ अजीब सा एहसास मन रूपी सागर में गोते लगा रहा है ।प्रकृति का बिखरा हुआ एक अनोखा सौन्दर्य जो की किसी कवि या लेखक की परिकल्पनाओं में ही मिलता है ,आज इस खिड़की से झलक रहा है ।एक तकनीकी संस्थान के परिसर में इस दौड़ती -भागती जिन्दगी के बीच इतना शांति और सुकून मन को अत्यंत आहलादित कर रहा है।वास्तव में ,प्रकृति प्रदत्त इस दुनिया के रग -रग़ में सुन्दरता बिखरी हुई है ,अपनी भौतिक जरूरतों के पीछे भागता मनुष्य जिसे पहचान नहीं पाता है और शिमला ,कश्मीर जैसी जगहों की खाक छानता फिरता है ।थोड़ी सी ही संवेदना से ये प्रकृति के रंग पहचाने जा सकते है ,और किसी भी कोने में बैठकर महसूस किये जा सकते है ।इन संवेदनाओं के अभाव में ही आज भौतिकवादी मनुष्य इस सौन्दर्य को न तो समझ पा रहा है और ना ही महसूस कर पा रहा है ।
                 
                    आज मनुष्य अपने आप में सिमट कर रह गया है ,अपने तथा अपने परिवार की जरूरतों की खातिर उसे भयंकर प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।नित नयी चीजों का इस बाजारवाद की दुनिया में आगमन हो रहा है ,एक के बाद एक  भौतिक जरूरतों को पूरा करने की कवायद में मनुष्य खुद अपने आप से बहुत दूर चला जा रहा है ।आज वह अपने चारों तरफ एक ऐसी फंतासी ,कृत्रिम दुनिया का निर्माण कर लेना चाहता है ,जिसमे उसके द्वारा जमा किये गए इन  खिलौनों में उसे महसूस ही न हो की वह मानव है ।वह भी अपने द्वारा जुटाए गए इन खिलौनों में एक खिलौना बन कर रह जा रहा है ।इस अंधी दौड़ में संवेदनाओं  व भावनाओं का स्थान भौतिकता ले लेती है ,जिसके परिणामस्वरूप ईर्ष्या ,क्षोभ तथा तृष्णा जैसी भावनाओं का सृजन होता है ।आज हमारे समाज में यही विसंगतियां फैलती जा रही हैं ।आदमी खुद से, अपने पड़ोसियों से तथा प्रकृति से बहुत दूर चला जा रहा है ।जिसके कारण  ही प्राकृतिक आपदाओं  ,युद्ध ,आत्महत्या तथा अपराध जैसी तमाम बिभीषिकाओं का सामना उसे आज ज्यादा करना पड़ रहा है ।
                   इस भागम -भाग के बीच थोड़ा सा समय यदि हम प्रकृति-प्रेम  तथा मानवता को समर्पित कर दें तो हमारी यह भाग -दौड़ तथा नैराश्यता से भरी जिन्दगी में प्रसन्नता की लहरें उद्देलित होने लगती है ,और हमारे मन में ईर्ष्या ,लोभ व कुंठा जैसे भाव अपनी जगह नहीं बना पातें हैं ।व्यवसायी केवल  अपने हानि -लाभ की गणना करता हुआ ,सेवक केवल अपने मालिक के खुशामदी में लगा हुआ तथा विद्यार्थी अपनी किताबों से चिपका हुआ इत्यादि उदाहारण है आज की दुनिया के भयावह स्वरूप के ,जिसके कारण आज मनुष्य विनाश की तरफ भाग रहा है ।मशहूर शायर निदा फाजली ने उचित ही कहा है --

                     धूप में निकलो ,घटाओं में नहा कर देखो ।                    

                    जिन्दगी क्या है ,किताबों को हटा कर देखो ।।         

 सावन के महीने के बाद हरियाली बरबस ही हर जगह ही आच्छादित हो जाती है ।हमारा यह परिसर ,जो की अभी दो -तीन महीनों पहले उजाड़ जैसा दीखता था ,अगस्त महीने में हरा भरा हो गया है ।डूबते हुए सूरज की लालिमा पूरे मैदान पर फ़ैल गयी है ।एक्का -दुक्का मैदान पर टहलते लोग वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं ।हरी -भरी घांसों से भरे छात्रावास के प्रांगण तथा खेल के मैदान के बीच स्याह रंग की सड़क दूर तक जाती हुई  दिखाई दे रही है ,जिसके किनारे कुछ गायें तथा बकरियाँ घांस चरति हुई दिखाई दे रही है ।इन्हें देखकर बरबस ही अपने गाँव की याद ताजा हो जाती है ।
                 मैंने दरअसल पहली बार किसी त्यौहार पर घर लेट जाने का निश्चय किया है ,नहीं तो हर बार छुट्टियाँ होने से पहले ही अपना बोरिया -बिस्तर समेट लेता था ।वास्तव में हॉस्टल की इस नीरवता में प्रकृति से संवाद करने में जिस आनंद की अनुभूति हुई उसे मै  घर एक दिन पहले पहुँच कर हासिल नहीं कर सकता था ।स्वच्छंद भाव से ,अपने मन के विचारों में उड़ने में जो आनंद है ,वह कोई उत्सव या त्यौहार नहीं दे सकता ।।अंत में, किसी शायर की ये लाइनें पेश हैं -

                                              वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से ,
                                              किसको मालूम कहाँ के हैं ,किधर के हम हैं ।
                                              चलते रहते हैं कि ,चलना है मुसाफिर का नसीब ,
                                              सोचते रहते है कि ,किस राहगुजर के हम हैं ।।
                                  

               

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