बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

तिनका हूँ...

तिनका हूँ ,
हवावों में उड़ा जाता हूँ ।
खामोश होकर ,
तूफानों से लड़ा जाता हूँ ।
देख मत ,
ये रौद्र रूप हवावों का ,
पीछे जिनके ,
वीरान खड़ा पाता  हूँ ।।


शांत रह ,
ये तूफां तो कुछ पल का है ।
छंट जायेगा ,
आसमां में जो धुंधलका है ।
दिया मालिक ने  ,
लघुरूप तो क्या हुआ ?
ये इम्तहान ,
तेरी हिम्मत ,आत्मबल का है ।।

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

तारें जमीं पर ..

                 अपने कॉलेज के पुरातन छात्र समारोह में कल मैंने देखा 1987 ,सिविल इंजीनियरिंग बैच के रवि राय सर को ।सिंगापुर में कुछ साल तक इंजीनियरिंग की सर्विस के बाद ,अपने देश के लिए कुछ करने का जज्बा लिए वापस चले आये ।आज वो गरीब ,अनाथ तथा असहाय बच्चों को उनका अधिकार एवं खुशियाँ दिलाने के लिए एक संस्था चला रहे है ,जिसमे उन्होंने अपना तन, मन ,धन समर्पित कर दिया ।
                  दोस्तों अपने लिए तो सभी करते है ,पर दूसरों के लिए अपना सब कुछ त्याग कर देने वाले ऐसे लोग विरले ही मिलते है ।आज इस समारोह में ,पूरी दुनिया के कोने -कोने से बहुत ऊँचे -ऊँचे पदों पर आसीन माल्वियंस आये हुए है ।निश्चय ही उनकी उपलब्धियां हमारे तथा इस कॉलेज के लिए गौरवपूर्ण है ,पर वास्तविक रोल मॉडल तो रवि सर है ।
                मशहूर शायर दुष्यंत कुमार ने कहा है -
                                                                      आज सड़कों पर लिखें है सैकड़ों नारे न देख ,
                                                                      घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।
           
                                                                      एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ ,
                                                                      आज अपने बाजुओं को देख पतवारे न देख ।।     
                 रवि सर के बच्चों के द्वारा,प्रसून जोशी के मशहूर गीत  "तारें जमीं पर" किये गए प्रदर्शन ने मंत्रमुग्ध कर लिया । इन मासूम तथा भोले बच्चों के चेहरे कितनी मासूमियत से यही तो  कह रहे थे कि आप इन्हें सम्हालिये,इनका बचपन तारों की तरह बिखर ना जाये ।खैर इनको तो इनका रहनुमा मिल गया है ,पर इस तरह के कितनों ही बच्चों को हम आज प्रतिदिन अपने जीवन में देखते है ।हमारी मेस में रोटी बाँटने वाला छोटू ,बसअड्डों ,तथा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए,चाय ,पानी एवं  छोटी-छोटी चीजों को बेचते हुए  ये नन्हे -मुन्हे बच्चे, जिनका बचपन ही इनसे छीन लिया जाता है और इस का परिणाम ही होता है उनके पूरे जीवन की त्रासदी ।अपने बचपन की इन भयंकर परिस्थियों से ये उबर नहीं पाते और उनमें से ज्यादातर ज्यादातर अपराध ,वेश्यावृत्ति तथा ड्रग माफियाओं के चंगुल में पड़ जाते है और जीवन भर इसमें से निकल नहीं पाते है ।
                  आज हमारे बदलते भारत की एक तस्वीर यह दिखाती है की हम चाँद पर पहुँच गए ,अंतरिक्ष की सैर कर रहें हैं ।चारों तरफ भारत -निर्माण तथा इंडिया -शाइनिंग के गीत गाये जा रहें हैं ।हम वैश्विक शक्ति बनने की राह पर हैं ।हमारा सकल घरेलू उत्पाद बहुत तेजी से बढ़ा है ।हमारे बैज्ञानिक तथा इंजीनियर पूरी दुनिया का लोहा मनवा रहे हैं ।इसी तस्वीर का एक दूसरा स्याह पहलू भी है जहाँ असीमित भूख व बेरोजगारी दिखती है ।एक तरफ सपनों में चाँद को छूने की तमन्ना रखने वाला बचपन तो दूसरी तरफ सड़कों पर बिखरता तथा गलियों में दम तोड़ता बचपन ।एक तरफ लम्बी -लम्बी कारों में सारी  सुख -सुबिधाओं से युक्त बचपन तो दूसरी तरफ इन्ही कारों की शीशों के बाहर अदद एक रुपये की तलाश में घूमता बचपन ।ये तस्वीरें कौन से भारत का आइना दिखा रहीं हैं?
                 बच्चे ही किसी राष्ट्र व समाज का भविष्य होतें हैं ।इस तरह हमारे देश का बचपन जो सड़कों पर , स्टेशनों पर तथा दुकानों एवं घरेलू नौकरों के रूप में बिखर रहा है ,आने वाले कौन से भारत का निर्माण कर रहा है ?ये सवाल आज हमारे ,हमारी सरकार के तथा हर भारतीय के सामने है ।ऐसे समय में जब न सरकार ना प्रशासन और न ही राज्य इन मासूमों की मासूमियत को बचाने का जिम्मा लेना चाहते हैं ,रवि राय जैसे कुछ दीपक  आज भी इस इस घने अंधकार से भरे माहौल में टिमटिमा रहें हैं ।दोस्तों !आज हमारे बीच के कितने साथी कल के प्रतिभाशाली पेशेवर बनने जा रहें हैं ।आज हम यदि इन जैसा दिया बनकर ना भी उजाला फैला सकें तो भी हमें ये ख्याल रखना पड़ेगा की इस तरह के जो दिये जल रहें हैं ,उनकी लौ ना बुझने पाए ।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

मेरा गाँव ,मेरा बचपन ....

पड़ोस में उतरते हुए गुड़ की 
वो भीनी सी महक ,
दौड़ा ले जाती थी हमको ,
चेनगे की तलाश में ।

आम के बौरों के रस से ,
पेड़ों के नीचे लसलसाई पत्तियाँ ,
जो हमारे पैरों में ,
चिपक जाया करती थी ।
और उठती थी ,
एक मीठी सी महक ,
जब पुरवाई छूकर हमारे शरीर को ,
सर्र से निकल जाया करती थी ।


ओसारे में लगा हुआ ,
गौरया का इक घोंसला ,
अम्मा की नजरों से बच कर ,
जिसमे हम रोज झाँका करते थे ।
आज अंडे से बच्चे निकल गएँ होगें ,
ये सोचकर नित्य ताका करते थे ।।


कोहले में पानी भरकर ,
लटका दिए जाते थे नीम की डालियों से ,
और बिखेर दिए जाते थे ,
जमीन पर चावल के कुछ तिनके ।
सुबह होती थी ,
गौरया के चहकते आवाज से ,
कबूतरों के गुटर -गूं से और चर्खियों के अल्फाज़ से ।।

स्कूल की खाली बेला में हम ,
दूर खेतों पर निकल जाते थे।
तोड़ते थे बेर और इमलियाँ ,
सरसरे कैथों पर चढ़ जाते थे ।।
मस्टराईन के खेतों से मटर की फलियाँ तोड़कर ,
खाते हुए हम वापस आते थे ।।


वो फैली हुई सरसों के खेतों में  ,
याद आता है बीच से होकर निकलना ।
पीली -पीली अनगिनत पंखुड़ियों का ,
सर से पांव तक चिपकना ।।

ललकी गैया को चराने ,
दूर तक निकल जाना ,
वापस आकर माँ के हाथो की ,
चुपड़ी रोटी ,साग और भात खाना 


याद है जब कोकिलों के साथ ,
हम भी कूका करते थे ।
उसके चुप होने तक ,
इक संग्राम छेड़ा करते थे ।।
ये लड़ाईयाँ बदल गयी आज ,
जीवन की लड़ाई ने अपना स्थान ले लिया है ।
गाँव छूट गया, बचपन बीत गया ,
शहरों ने वो खोया सोपान ले लिया है ।।










मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

यादों के झरोंखों से.......

                रक्षाबंधन की छुट्टियों की वजह से मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग का रमन छात्रावास लगभग खाली सा हो गया है ।अधिकांश छात्र अपने घर जा चुके हैं और कुछ जाने की तैयारी में लगे हुए है। रमन भवन के छोर पर स्थित कमरा नंबर 126 में खिड़की के पास बैठा मै बाहर खेल के मैदान को तथा छात्रावास के पीछे हरे वृक्षों से आच्छादित जंगल को निहार रहा हूँ ।
                कल शाम को यह क्रीड़ाक्षेत्र लोगों से भरा हुआ था ।व्यायामशाला में लोगों का आवागमन  बास्केटबाल कोर्ट पर जमघट ,टेनिस कोर्ट पर लुत्फ़ उठाते कुछ छात्र ,क्रिकेट मैदान के चारों  तरफ बने एथेलेटिक्स सर्किट पर दौड़ लगाते युवाओं का झुण्ड तथा घास के मैदानों पर खुली हवा में योग व प्राणायाम का अभ्यास करते कुछ वरिष्ठ नागरिक इत्यादि दृश्य कल तक यहाँ देखे जाते थे ,किन्तु आज इक्का -दुक्का लोग ही मैदान में दिखाई पड़ रहे हैं ।अचानक हुए इस एक ही दिन के द्रुत परिवर्तन को देखकर ,कुछ अजीब सा एहसास मन रूपी सागर में गोते लगा रहा है ।प्रकृति का बिखरा हुआ एक अनोखा सौन्दर्य जो की किसी कवि या लेखक की परिकल्पनाओं में ही मिलता है ,आज इस खिड़की से झलक रहा है ।एक तकनीकी संस्थान के परिसर में इस दौड़ती -भागती जिन्दगी के बीच इतना शांति और सुकून मन को अत्यंत आहलादित कर रहा है।वास्तव में ,प्रकृति प्रदत्त इस दुनिया के रग -रग़ में सुन्दरता बिखरी हुई है ,अपनी भौतिक जरूरतों के पीछे भागता मनुष्य जिसे पहचान नहीं पाता है और शिमला ,कश्मीर जैसी जगहों की खाक छानता फिरता है ।थोड़ी सी ही संवेदना से ये प्रकृति के रंग पहचाने जा सकते है ,और किसी भी कोने में बैठकर महसूस किये जा सकते है ।इन संवेदनाओं के अभाव में ही आज भौतिकवादी मनुष्य इस सौन्दर्य को न तो समझ पा रहा है और ना ही महसूस कर पा रहा है ।
                 
                    आज मनुष्य अपने आप में सिमट कर रह गया है ,अपने तथा अपने परिवार की जरूरतों की खातिर उसे भयंकर प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।नित नयी चीजों का इस बाजारवाद की दुनिया में आगमन हो रहा है ,एक के बाद एक  भौतिक जरूरतों को पूरा करने की कवायद में मनुष्य खुद अपने आप से बहुत दूर चला जा रहा है ।आज वह अपने चारों तरफ एक ऐसी फंतासी ,कृत्रिम दुनिया का निर्माण कर लेना चाहता है ,जिसमे उसके द्वारा जमा किये गए इन  खिलौनों में उसे महसूस ही न हो की वह मानव है ।वह भी अपने द्वारा जुटाए गए इन खिलौनों में एक खिलौना बन कर रह जा रहा है ।इस अंधी दौड़ में संवेदनाओं  व भावनाओं का स्थान भौतिकता ले लेती है ,जिसके परिणामस्वरूप ईर्ष्या ,क्षोभ तथा तृष्णा जैसी भावनाओं का सृजन होता है ।आज हमारे समाज में यही विसंगतियां फैलती जा रही हैं ।आदमी खुद से, अपने पड़ोसियों से तथा प्रकृति से बहुत दूर चला जा रहा है ।जिसके कारण  ही प्राकृतिक आपदाओं  ,युद्ध ,आत्महत्या तथा अपराध जैसी तमाम बिभीषिकाओं का सामना उसे आज ज्यादा करना पड़ रहा है ।
                   इस भागम -भाग के बीच थोड़ा सा समय यदि हम प्रकृति-प्रेम  तथा मानवता को समर्पित कर दें तो हमारी यह भाग -दौड़ तथा नैराश्यता से भरी जिन्दगी में प्रसन्नता की लहरें उद्देलित होने लगती है ,और हमारे मन में ईर्ष्या ,लोभ व कुंठा जैसे भाव अपनी जगह नहीं बना पातें हैं ।व्यवसायी केवल  अपने हानि -लाभ की गणना करता हुआ ,सेवक केवल अपने मालिक के खुशामदी में लगा हुआ तथा विद्यार्थी अपनी किताबों से चिपका हुआ इत्यादि उदाहारण है आज की दुनिया के भयावह स्वरूप के ,जिसके कारण आज मनुष्य विनाश की तरफ भाग रहा है ।मशहूर शायर निदा फाजली ने उचित ही कहा है --

                     धूप में निकलो ,घटाओं में नहा कर देखो ।                    

                    जिन्दगी क्या है ,किताबों को हटा कर देखो ।।         

 सावन के महीने के बाद हरियाली बरबस ही हर जगह ही आच्छादित हो जाती है ।हमारा यह परिसर ,जो की अभी दो -तीन महीनों पहले उजाड़ जैसा दीखता था ,अगस्त महीने में हरा भरा हो गया है ।डूबते हुए सूरज की लालिमा पूरे मैदान पर फ़ैल गयी है ।एक्का -दुक्का मैदान पर टहलते लोग वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं ।हरी -भरी घांसों से भरे छात्रावास के प्रांगण तथा खेल के मैदान के बीच स्याह रंग की सड़क दूर तक जाती हुई  दिखाई दे रही है ,जिसके किनारे कुछ गायें तथा बकरियाँ घांस चरति हुई दिखाई दे रही है ।इन्हें देखकर बरबस ही अपने गाँव की याद ताजा हो जाती है ।
                 मैंने दरअसल पहली बार किसी त्यौहार पर घर लेट जाने का निश्चय किया है ,नहीं तो हर बार छुट्टियाँ होने से पहले ही अपना बोरिया -बिस्तर समेट लेता था ।वास्तव में हॉस्टल की इस नीरवता में प्रकृति से संवाद करने में जिस आनंद की अनुभूति हुई उसे मै  घर एक दिन पहले पहुँच कर हासिल नहीं कर सकता था ।स्वच्छंद भाव से ,अपने मन के विचारों में उड़ने में जो आनंद है ,वह कोई उत्सव या त्यौहार नहीं दे सकता ।।अंत में, किसी शायर की ये लाइनें पेश हैं -

                                              वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से ,
                                              किसको मालूम कहाँ के हैं ,किधर के हम हैं ।
                                              चलते रहते हैं कि ,चलना है मुसाफिर का नसीब ,
                                              सोचते रहते है कि ,किस राहगुजर के हम हैं ।।
                                  

               

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

दिया

घनघोर अँधेरी रातों में ,
इन तीखे झंझावातों में ।
जलता रह दीपक बुझ ना तू ,
विपरीत विकत हालातों में ।।


है काल रात्रि चंहु ओर तमस ,
सूरज का निकलना बाकी है ।
दमकी दामिनि ,अति तीव्र पवन ,
हे दिये !तू ही एकाकी है ।।


बुझ गए सकल साथी तेरे ,
आगे तूफान भयंकर है ।
गिरती उठती तेरी लौ है ,
अब और न कोई सहचर है ।।


छँट जायेगा तूफान विकट ,
सूरज का उजाला भी होगा ।
दृढ़ निश्चय रख ,संघर्ष बढ़ा ,
किसी ओर किनारा भी होगा ।।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

मुख्यमंत्री आ रहें हैं

(माननीय मुख्यमंत्री जी के कॉलेज दौरे पर ,इस राज्य सरकार के इंजीनियरिंग कॉलेज की नवनिर्माण प्रक्रिया को देखकर मन कुछ कहे बिना ना रह सका  )


मुख्यमंत्री आ रहें हैं ,मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।
छात्र ,अध्यापक ,चपरासी ,कर्मचारी ,सभी एक स्वर में गा रहे हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।


दिखते थे वार्डन सर महीनों में कभी -कभी ,
आजकल सुबह शाम हॉस्टल का चक्कर लगा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


टहलती थी गौवें ,भैसें ,बकरियाँ ,
जिस प्रांगण में दिनों -रात ,
वहां के टूटी हुई बाड़ों के तार खड़े किये जा रहे हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


चरती रहती थी रात दिन जिन घासों को, भैसें और बकरियां ,
आज उनके तने दुलारे जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


नहीं थी ट्युबलाइटें ,नहीं थे बल्ब ,
हॉस्टल के बरामदें में ,बाथरूम में ।
आज सब नए लगाये जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं 


पड़ा रहता था गोबर ,कूड़ा -कचड़ा जिन रास्तों पर ,
आज वे सुबह शाम फुहारे जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


पड़ी रहती थी कुर्सियां- मेजें ,
बाहर बरामदों में कई महीनों से ।
आज उसको अन्दर रखने वाले छात्रों पर ,जुर्माने लगायें जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


फुर्र हो जाते थे कुछ क्षण में जो वार्डबॉय ।
आज बेचारे ओवर टाइम से मारे जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं।।


अर्जियां लेकर हम घूमा करते थे जिनके पीछे -पीछे ,
"कोई समस्या है क्या आपको ?" उनके द्वारा यही सवाल  सबसे पूछे जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं । मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।। 


स्वर्ग से कोई देवता प्रगट होने वाला हो जैसे ,
यही आस लिए कुछ हमारे गुरुजन ,
कक्षाओं में मुख्यमंत्री पाठ किये जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।। 


मेस में क्या पहनना है?
कमरे में और कमरे के बाहर क्या पहनना है? 
आज हमारे लिए ड्रेसकोड बनाये जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


अच्छा है मुख्यमंत्री रोज नहीं आते ,
वर्ना हम लोगों को वार्डन सर की मृदु वाणी का प्रहार सुबह शाम झेलना पड़ता ।
ड्रेसकोड का ख्याल रखना पड़ता ,
ऐसा लगता मानो हॉस्टल नहीं किसी कैदखाने में जिन्दगी जिए जा रहे हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ,मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।
                           

                                                                       

प्रगति

नित बदलती इस धरा का रूप अब क्या हो गया है ।
थे शुशोभित हरित उपवन नाश सबका हो गया है ।।
सप्त स्वर से गूंजते वे पक्षियों के मधुर कलरव ,
मंद शीतल वायु के झोंको से विचलित पेड़ पल्लव ।
हरित उपवन से शुशोभित ,काले बदरों से अलंकृत ,
इस धरा और आसमां का रंग क्या अब हो गया है ।
नित बदलती --------------------------------------

समय बदला और ये विज्ञान का अब युग है आया ,
मानवी हित अहित ,संसाधन को अपने साथ लाया ।
इन पहलुओं को समझकर, पग बढ़ा तू इस डगर पे ,
सृजित कर यह लोक अपना धूसरित सा हो गया है ।।
नित बदलती ---------------------------------------

हो रही खोजों  से  नितदिन रो रही यह प्रकृति अपनी ,
दूषित जल- भूमि -मारुत से त्रसित यह प्रकृति अपनी
पूजते थे इस धरा को ,नमन करते आसमां को ,
क्या होगा क्या था तू मानव ,क्या तुझे अब हो गया है ।।
नित बदलती -----------------------------------------

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                         सुनामी

चलती ही जा रही थी ,
गाड़ी ये इस सफ़र में ।
मदमस्त थे मुसाफिर ,
इस राह -ऐ -जिन्दगी में ।।

तकनीक की जिस देश के ,
कायल थे दुनियावासी ।
मशगूल अपनी लय में थे ,
उस देश के निवासी ।

लोगों को क्या पता था ,
क्या घटित होगा कल भला ।
सिहरित हुई थी धरती ,
तोयधि से उठा जलजला ।

उठते हुए जलधि से ,
ये सर्प रूपी ज्वार ।
करते हुए सजीव व निर्जीव का संहार ।।

कंपकपाती हुई धरती ,
सिहरता हुआ आकाश ।
दबते, बहते ,कुचलते लोग ,
कैसा है यह विनाश ।।

विज्ञान के बनाये ,
इस शहर का ये मंजर ।
प्रकृति की लघु गर्जना से ,
हो गया है बंजर ।।

"किसलय "

                  ######## 

                    मुसाफ़िर                                                               

यादों के हंसी गुलशन में जीना सीख लेना तुम ,
हवाओ के सदिश रुकना व चलना सीख लेना तुम |
कभी खुशियों के मेले आयेंगे तुझको हंसायेगे ,
कभी गम से भरे सागर यहाँ तुझको रुलायेंगे ||
मिलेंगे हर कदम पर हर तरह के लोग इस पथ पर ,
सभी के साथ मिलकर नित्य चलना सीख लेना तुम ||
यादों के........................................................
मुसाफिर है हमें चलना है इन पथरीली राहों में ,
नहीं रुकना भयंकर ठोकरों  दुःख  की पनाहों में |
मिलेंगे दिन नए राते नयी बाते नयी पथ में ,
उनको यद् रखना और उनको याद आना तुम ||
यादों के .............   .................................
               ########

             
                
###भेड़ और सिंह###
भेंड़े चल रही हैं ।
मालिक के पीछे ,
ऊबड़ खाबड़ और टेढ़े मेढ़े रास्तों पर ।
समतल और सीधे साधे रास्तो पर ।।
नहीं पता कहाँ जाना है ,क्या करना  है ?
इस अनवरत पथ पर कहाँ तक चलना है ??
यदि कोई भेड़ दूसरे रास्ते पर जाती है ,
मालिक की घुड़की पाती है ।
उसकी साथी भेड़े भी मुंह मोड़ लेती हैं ।
उसे निगरानी में रख मन माफिक चलवाया जाता है ,
अपना काम निकलवाया जाता है ।
यदि ऐसा नहीं है तो,
बुचडखाने भिजवाया जाता है ।
इसलिए कहता हूँ ,
तू भेड़ ना बन सिंह बन ।
जो स्वछन्द पूरे वन  में विचरण करता है ।
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