सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नववर्ष आगमन मंगलमय हो .........

आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !!

               दोस्तों !जिन्दगी के रहगुजर पर चलते हुए आज हम फिर से एक पड़ाव को पार कर रहें हैं ।जहाँ बीता हुआ वर्ष कुछ खट्टी ,कुछ मीठी तथा कुछ कड़वी यादों को हमारे जेहन में वसाकर हम सभी को अलविदा कह रहा है ,वहीँ एक नया साल कुछ पीड़ा को सजोए हुए ,तथा कुछ उमंग व उत्साह को अपने में समेटे हुए हमारे स्वागत की तैयारी कर रहा है ।

               बीता साल जहाँ हमारे समाज में व्याप्त भयानक नृशंसता ,पाश्विकता व अमानवीयता का आइना हम सभी को जाते-जाते दिखा गया ,वहीं बदलाव की आस में सभी विपरीत परिस्थितियों से सड़कों पर जूझते देश के लाखों युवाओं के माध्यम से यह पैगाम भी दे गया कि आने वाले नये भारत की तस्वीर इनके द्वारा गढ़ी जायेगी ।बदलाव की एक लहर जो हमारे समाज ,हमारे देश ने पिछले सालों में महसूस की थी ,2012 में भी उसकी प्रवृत्ति सतत बनी रही । ऐसी उम्मीद भी है कि आने वाला यह नववर्ष हमारे ,हमारे समाज तथा हमारे राष्ट्र में हो रहे सकारात्मक परिवर्तनों को एक नयी दिशा व गति प्रदान करेगा और हम सभी इस बदलाव का एक हिस्सा होंगे ।दोस्तों !नए साल की यह ख़ुशी दिखावा मात्र नहीं होनी चाहिये ,वल्कि ये ख़ुशी होनी चाहिये एक नये उम्मीद की ,एक नये उत्साह की तथा नवपरिवर्तन के रँग में रँगे इन युवा चेहरों के सपनों की ।

                आज हमें यह प्रण करना चाहिये कि जो भी उत्तरदायित्व हमें हमारे समाज से ,हमारे देश से हमें मिलता है उसका निर्वहन हम पूर्ण निष्ठा तथा ईमानदारी से करेंगें ,  हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रान्तिकारियों तथा हमारे जननेताओं नें जिस भारत का सपना देखा था उसे पाने की दिशा में हम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेंगे ।दोस्तों ! कल किसी ने नहीं देखा है ,हाँ सुनहरे कल के निर्माण के लिए हमारे पास वर्तमान है ।और आज यदि हम अपने वर्तमान के निर्माण से विमुख होंगे तो आने वाला कल हमें कभी माफ़ नहीं करेगा ।अतः अपने सुनहरे कल के सपनों को सजोकर आज और अभी से हमें इस दिशा में कदम बढ़ाने चाहिये ।यह समय बैठने का नहीं वरन अपने राष्ट्र ,अपने समाज व अपने लिये कुछ करने का है ।इस दिशा में जिन लाखों युवाओं ने जो आवाज आज बुलंद की है ,यह आवाज और तेज होनी चाहिये ।हम पर ,आप पर व हम सभी पर यह दायित्व है कि समय के साथ ,समाज की हर एक बुराई पर एवं सत्ता के हर एक दंभ भरे व्यवहार पर यह प्रतिध्वनि सतत गूंजनी चाहिये ।और अंत में मै अपनी कुछ पुरानी लाइनें पुनः दुहराना चाहूँगा -------
                   इस नये सहर की वेला पर ,
                   करिये नव सूरज को प्रणाम ।
                   विकरित नव रश्मि जहाँ पँहुचे ,
                   आह्वान करो हर नगर ग्राम ।
                   जगत गुरू के आसन पर ,
                   जनतंत्र के ये है जनभक्षक ।
                   फूंकों नवबिगुल है क्रान्ति नयी ,
                    भारत माँ के हो तुम रक्षक ।।

                                                                     (सच्चिदानन्द तिवारी )

रविवार, 23 दिसंबर 2012

आखिर कब बदलेगा तंत्र ....

           
            आज दिल्ली की सड़कों पर एक बार फिर सरकार पर प्रदर्शनकारियों का गुस्सा फूट पड़ा ।हजारों लोगों के समूह ने जनपथ ,राष्ट्रपतिभवन ,मंत्रियों तथा सोनिया गाँधी के आवास का घेराव किया ,और दोषियों को सख्त से सख्त सजा देने तथा भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के सन्दर्भ में सरकार से जवाब माँगा ।हमारे एक मंत्री का जवाब भी आ गया कि भावनाओं में बहकर तंत्र नहीं चलता ,यह एक प्रक्रिया के तहत चलता है ।बेशक मंत्री जी का यह कहना बिलकुल सही है कि दोषियों को सजा हमारे सांविधिनिक व्यवस्था के अन्तर्गत ,न्यायालयों द्वारा प्रदान की जाएगी ,परन्तु जिस तंत्र की दुहाई हमारे मंत्री जी दे रहें है ,क्यों उस में  इसी तरह से हजारों बलात्कार के मामले लंबित पड़े है ?और क्यों आधे से अधिक मामलों में दोषी बिना सजा पाए छूट जाते हैं ?बलात्कार की यह कोई नई घटना नहीं है ,आये दिन हमारे समाज में ऐसी वहशियाना घटनायें घटती रहती है ।तब इनको क्यों नहीं ये महसूस हुआ कि हमें तन्त्र में सुधार करने की जरुरत है ? यदि पहले से ही हमारी व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त होती और इस प्रकार के घृणित कृत्यों के प्रत्येक दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी गयी होती तो क्या आज इंसानियत को शर्मसार करने वाली तथा हैवानियत की सीमा लांघती ऐसी ऐसी घटनाएँ हमारे समाज में घटित होती ?
             
                 लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं ,किन्तु आज जनता इन जनप्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है ।किसी भी कानून की मांग तथा कार्यवाही को लेकर सत्ता के मद में चूर हमारे राजनेताओं को के कानों में तब तक जूं नहीं रेंगती ,जब तक इन्हें अपने कुर्सी के खतरे की घंटी नहीं सुनाई देती है ।आखिर क्यों हमने इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है ?केवल इसी लिए कि ये अपने दस जनपथ और बीस जनपथ स्थित राजमहल में सोते रहें और बाहर जनता अपने न्याय ,सुरक्षा तथा अधिकारों के लिए चिल्लाती रहे ।नहीं साहब !ये भीड़ आज ये चीख-चीख कर कह रही है कि बस बहुत हो चुका ,आज चाहे हम हों या हमारे शासन तंत्र के नुमाइन्दे हों अथवा वीभत्स मानसिकता लेकर हमारे समाज में ही पले-बढ़े ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वाले आसामाजिक तत्व , सभी को बदलना होगा ।इनमे से जो भी स्वेच्छा से इस बदलाव को नहीं अपना सकता तो उसे मजबूर करना हम सभी की तथा इस समाज की जिम्मेदारी होगी ,फिर भी ना बदलने पर पर इस सामाजिक दायरे से उसके निष्कासन की जिम्मेदारी भी हमारी ही होगी ।मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की ये लाइनें आज सटीक ही बैठती है ----
                                         
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

गजल

तेरे बाद इस तूफां का मंजर कम नहीं होता ,
उमड़ते हैं जवां रातों में काले मेघ यादों के ।

दरिया के पुराने पुल से ,बैठे फेंकते पत्थर ,
सहर के लाल आंचल के तले ,हम-तुम नहाए से ।





शबा चलती थी ,पंखुड़िया लरजती ,तेरे जुल्फों की ,
बिखरती शाम के साये में ,प्याले तेरे हाथों के ।


निखरती है कभी इक अक्स ,दिल के कोरे कागज पर ,
निकलते हर्फ़ से लिपटी ,ग़ज़ल है मेरी सांसों में ।

                      (सच्चिदानन्द तिवारी )

रविवार, 16 दिसंबर 2012

फूल है ये

कुछ तुड़े से ,
कुछ मुड़े से ,
और कुछ,
तनकर खड़े से
क्यारियों के ,
फूल है ये ।

हो कहानी,
प्रेम की ,
या मगजमारी ,
क्षेम की ,
हर जगह ,
उल्लास की ,
उठती हुई सी ,
धूल है ये ।

समिति हो ,
संवेदना की ,
इष्ट के ,
आराधना की ,
आर्त के ,
मुश्किल क्षणों में
नित्य चुभते ,
शूल है ये ।

राजपथ
या राजघाट ,
या कभी
शमशान घाट ,
हर नगर ,
हर ग्राम-घर के ,
सुख-दुखों का ,
मूल है ये ।

रास्ता
तनहाइयों का ,
अनगिनत
कठिनाइयों का ,
कंटको के
बीच से ,
पैगाम तू मत भूल ,है ये ।

क्या चमेली ,
रातरानी ,
बेला-चंपा ,
की कहानी ,
हर तरह
हर रंग के इन ,
साथियों का,
मेल है ये ।

मस्त मधु हैं ,
मस्त कलियाँ ,
तन से चिपकी ,
हैं तितलियाँ ,
गूंजते ,
अपनी धुनों में ,
भ्रमर का ,
संगीत हैं ये ।

पददलित
करता है मानव ,
नित्य लाखों को
यहाँ पर ,
पर कभी ,
उफ़ तक न करते ,
क्या करोगे ,
फूल है ये ।

फिर मचलते ,
खिलखिलाते ,
जीव औ जड़ ,
को सिखाते ,
जिन्दगी के
इस सफ़र में ,
क्षण यहाँ ,
अनमोल हैं ये ।

                     -  सच्चिदानन्द तिवारी 
               -

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

ये रात



हमारे अन्तर्मन की ,
ये रात गहराती जा रही है ।
ये घुप अँधेरा ,
जो हमारी त्वचा से होकर ,
दिल की गहराइयों तक उतर चुका है ।
कभी भागता था ,
हमारे शरीर के संसार में प्रकाशित ,
अनुभूतियों के सूरज से ।
अनगिनत अणुओं के संलयन से ,
उपजित होती असीमित किरणें ,
जो करती थी रौशन ,
अपने को ,
अपने चारों तरफ बिखरे जहान को ।
उनमे से कोई किरण ,
आज नजर नहीं आ रही है ।
हमारे अन्तर्मन की,
ये रात गहराती जा रही है ।
जिस सूरज की लालिमा से ,
जीवन के फलक पर पर बिखरा हुआ ,
कुहरा छंट जाया करता था ।
जिसकी सांसों की गर्मी से ,
नित नया जीवन ,
प्रज्वलित हुआ करता था ।
उसे आज इस स्याह चादर ने ,
ढँक लिया है ।
इस शरीर-संसार के हर कोने को ,
शब ने अपने आगोश में कस लिया है ।
जाने कौन सा पहर है ये ,
रात अभी कितनी बाकी है ?
हे निशा !तेरे सिवा यहाँ ,
ना मय है और न साकी है ।
धूप और छाँव का ,
दिन और रात का ,
ये खेल सदैव चलता रहेगा ।
कभी अपने लिये ,
कभी अपने बनाये इस संसार के लिये ,
ये अन्तर्मन सदैव लड़ता रहेगा ।
 
                     (सच्चिदानन्द तिवारी )

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

जन से खिसकता तंत्र .....




                   कहा जाता है की अब तक ज्ञात सभी तंत्रों में जनतंत्र अथवा लोकतंत्र ही एक ऐसी शाशन-पद्धति है ,जिसमें लिए गए निर्णय वास्तविक रूप से रूप से जनता की अभिव्यक्ति तथा जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते है ।प्रत्यक्षतः जब इस काम को करने में जनता असमर्थ होती है ,तब जनप्रतिनिधियों के माध्यम से वह अपने विचारों व भावनाओं के अभिव्यक्ति की उम्मीद करती है ।जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे जनता के हितों तथा उनके सर्वांगीण उत्थान के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्णय लेंगे ।किन्तु आज क्या हो रहा है ?जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जो प्रत्येक सर्वेजनिक मंच पर जनहित की बात करते नहीं अघाते है ,संसद में मतदान के वक्त अपना मत क्यों नहीं व्यक्त कर पातें हैं ?वास्तव में हमारी आज की जनतांत्रिक पार्टियों का जनता से कोई सरोकार रह ही नहीं गया है ।आज इनको इसकी परवाह नहीं है कि एफडीआई से देश के लोगों का भला होगा या नुकसान ।इनको परवाह बस इस बात की है की किसी न किसी प्रकार जोड़-तोड़ करके इनकी राजनीतिक दुकान चलती रहे ।अपना उल्लू सीधा करने के इस प्रयास में आज की ये राजनीतिक पार्टियाँ बाहर से कुछ और तथा अन्दर से कुछ और का दुहरा मानदण्ड अपना रही हैं ।इनका अपना खुद का कोई एजेंडा ही नहीं रह गया है ,एन मौके पर अपना राजनीतिक हित साधने वाली ये पार्टियाँ अपना एजेंडा बदलती रहती हैं ।ऐसा कैसे संभव है कि एक प्रमुख राजनीतिक दल के मुखिया ,जो एफडीआई के खिलाफ राष्ट्रव्यापी बन्द में शामिल हो ,वह संसद में मतदान के अवसर पर इस मसले पर अपने सदस्यों के साथ मतदान किये बगैर चला जाये ।इसी प्रकार अन्य दलों जैसे बसपा ,द्रमुक आदि के रवैये में भी बिरोधाभास दिखाई देता है ।बसपा की मुखिया सुश्री मायावती जी का कहना है कि प्रोन्नति में आरक्षण के बदले में हम एफडीआई के मुद्दे पर सरकार का साथ देंगे ,अन्यथा हम एफडीआई का विरोध करते है ।अब इनको अपने ज्ञानी मष्तिष्क से यह जवाब भी देना चाहिए कि निर्णयों के अदला-बदली के इस खेल में कैसे उन्होंने एक मुद्दे से जुड़े लाभ की तुलना पूरी तरह से भिन्न एक दूसरे मुद्दे से की ?मायावती जी का यह कहना की 'हमें यह भी देखना है हम सांप्रदायिक ताकतों के साथ न खड़े हो ' किसी के गले नहीं उतरने वाला तर्क है ।सभी जानते है कि इन्ही ने कई बार भाजपा की नीतियों का समर्थन किया है और गठबंधन सरकार तक बना चुकी है ।मायावती जी का यह बयान केवल राजनीतिक अवसरवादिता का एक वृकित रूप दर्शाता है ।जिस मुद्दे पर सदन से बाहर तथा सदन से अन्दर चर्चा तक बहुमत इसका विरोध कर रहा हो ,सदन के मतदान में उसका पारित हो जाना इन राजनीतिक दलों की कथनी व करनी में फर्क दिखलाता है ।आज जब हमारी जनतांत्रिक पार्टियों तथा जनता द्वारा चुने गए राजनेताओं का व्यवहार इस तरह का होगा तो जनता में कैसा सन्देश जायेगा ?बात-बात पर संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देने वाले हमारे माननीय राजनेताओं को यह समझना पड़ेगा कि हमारे संसद की सर्वोच्चता इसके सदस्यों द्वारा सदाचरण तथा जनता के प्रति जवाबदेही से ही निर्धारित होती है ।यदि ऐसा नहीं हो रहा हो तो जनतंत्र क्या किसी भी तंत्र से जनता का मोहभंग वाजिब ही है ।

मेरी ग़ज़ल




निगाहों में समाया था, कभी ये ख्वाब मेरे भी ,
रौशन इस फिजाँ में कोई ,अपना आशियाँ होगा ।

चमकती रेत ,सूरज की तपिश है ,सारे आलम में ,
खुदा जाने यहाँ दरिया में अब ,पानी कहाँ होगा ।

नहीं होंगी दरकती डोरियाँ ,रिश्तों की आपस में ,
बहेगा खून ना सरहद पे ,राह-ए-राजदां होगा ।

रहेंगीं साथ साहिल पर ,हजारों रंग की हस्ती ,
न हो आमद बलाओं की ,समंदर शांत सा होगा ।

न हो संगीन के साये ,कभी मज़हब की राहों में ,
जमीन-ए-हिन्द का रौशन सितारा यार तब होगा ।

निगाहों में समाया था, कभी ये ख्वाब मेरे भी ,
रौशन इस फिजाँ में कोई ,अपना आशियाँ होगा ।।

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

अभिलाषा


विचरण करते नभ मंडल में ,
खग वृन्दों की उन्मुक्त उड़ान ।
लघु कोमल चंचल पंखों से ,
मापन करते सारा जहान ।।
असीमित संसार है इनका ,
मजहब की दीवार नहीं है ।
जांति -पांति ना भेद -भाव है ,
कलुषित द्वेश विकार नहीं है ।।

अपने दानों से मतलब है ,
अम्बर के दीवानों को ।
सृजित करते पत्तों -तिनकों से ,
अपने नीड़ घरानों को ।।

है विवेक और ज्ञान मनुज में ,
पर ऐसा संसार नहीं है ।
है कोई मानव की बस्ती ,
जहाँ कोई भी दीवार नहीं है ।।

नभ चर के सुन्दर  समूह में ,
मैं भी बस इक पंछी होता ।
क्रीड़ा करता नभ मंडल में ,
वट शाखा पे वसेरा होता ।।
                                     

ये कागजी दुनिया


जन्म लेते ही, 
हमारा कागजीकरण  कर दिया गया |
तत पश्चात थमा दिया गया कागजो का एक बण्डल ,
और  कहा गया कि रट डालो इन्हें ,  
यह तुम्हारे बेहतर जीवन के लिए है |
कागजो के वे बण्डल जीवन का हिस्सा होते चले गए ,
बाद में पता चला,
ये कागज दूसरे कागजो को पाने के लिए है |
हमारे बेहतर जीवन के लिए है|
एक के बाद एक बण्डल आते चले गए ,
हम उसी में अपना सर खपाते गए ,
इसलिए कि कभी  तो बेहतर जीवन मिलेगा,
फिर बताया गया कि बेहतर जीवन का मतलब का मतलब यही दूसरे कागज है|
यही बताया जा रहा है ,
हमारी आने वाली पीढ़ी को ,
यही दूसरा कागज जिसके पास है ,
वही सफल है,
और उसी के पास बेहतर जीवन है|
 दूसरा कागज तो मिलता चला गया ,
 किन्तु एक बेहतर जीवन कि तलाश में आज भी भटक रहा हूँ|||||

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

गीत


खोजता रहता हूँ ,
इक नाम इसी मेलें में ।
था कोई अपना भी ,
दुनिया के इस झमेले में ।
खोजता -------------

जैसे आता है चाँद ,
शाम घिरने पर आँगन में ,
और चला जाता है ,
नित शहर के उजाले में ।
खोजता  -----------

जैसे कलियों पर ,
शबनम की चमकती बूंदें ,
खो जाती है कहीं ,
उषा किरण के रेले में ।
खोजता --------------

आ जाओ फिर कभी ,
फुर्सत में ऐ जान-ए-ग़ज़ल ,
रहते है अभी भी हम ,
ढहते इसी वसेरे में ।
खोजता -------------

रविवार, 18 नवंबर 2012

कॉलेज की ऑटोनोमी



शहर की गलियों -कूचों पर ,
छात्रों के मन मष्तिस्क पर ,
आइ-नेक्सट,जागरण ,उजाला और हिन्दुस्तान के पृष्ठों पर ,
कॉलेज की ऑटोनोमी छाई हुई थी ।

हमने भी पूछा यार ये ,ऑटोनोमी कौन सी चिड़िया का नाम है ?
अपने गोरखपुर की आइआइटी में ,उसका भला क्या काम है ??
सब बोले यार अपने इन छोटे-छोटे खयालों से बाहर निकलो ।
गोरखपुर नहीं अब प्रदेश की आइआइटी होगी ये ,
समय के साथ अपने आप को बदलो ।।

हर बार की तरह ही इस बार भी ,
कॉलेज सफाई अभियान चला ।
यूजीसी एआइसीटीइ की टीमें आई ,
कॉलेज को ऑटोनोमी का ईनाम मिला ।

अनुदान मिले ,अधिकार भी मिले ,
हमने भी सोचा यार किस्मत बदल गयी ।
हमारी भी और उन बेचारी मशीनों की भी ,
जो आज संग्राहालयी कलाकृति में तब्दील हो चुकी हैं ।

हर बैच के छात्रों को ,
जिनका दर्शन कराया जाता है ।
'आज ये दस-बीस सालों से बंद पड़ी है ',
यही ज्यादातर बताया जाता है ।

अब तो इन विद्जनों की एड-हाक फैकल्टी से ,
छोटे से काम के लिए
दौड़ाने वाले नाकारा प्रशासन के झोल-झालों से ,
और मेस के गड़बड़घोटालों से ,
हम लोगों को मुक्ति मिली ।
यह सोच कर अत्यधिक ख़ुशी मिली ।

मैंने भी अपने घर बताया ,
पड़ोसियों को भी बताया ।
प्राइवेट कॉलेज के दोस्तों पर अपना रोब चलाया ।
अरे भाई !यही तो मौके होते हैं सबको बताने के ,
हमने भी कुछ साल पहले इक अच्छा काम किया था ।
आइआइटी की तैयारी का ये कॉलेज ईनाम मिला था ।।

एक साल बीत गया खुशियाँ मनाते ,
हालत बद से बदतर होती गयी ।
हमारे नव परिवर्तन की आस ,
बस आस बनकर रह गयी ।।

सुना है ,
कॉलेज अब विश्वविद्यालय बनने जा रहा है ,
फिर से नई खुशियाँ मनाने के लिए तैयार हो जाओ मेरे दोस्तों ,
हमारे मुख्यमंत्री साहब का एलान आ रहा है ।।



बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

तिनका हूँ...

तिनका हूँ ,
हवावों में उड़ा जाता हूँ ।
खामोश होकर ,
तूफानों से लड़ा जाता हूँ ।
देख मत ,
ये रौद्र रूप हवावों का ,
पीछे जिनके ,
वीरान खड़ा पाता  हूँ ।।


शांत रह ,
ये तूफां तो कुछ पल का है ।
छंट जायेगा ,
आसमां में जो धुंधलका है ।
दिया मालिक ने  ,
लघुरूप तो क्या हुआ ?
ये इम्तहान ,
तेरी हिम्मत ,आत्मबल का है ।।

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

तारें जमीं पर ..

                 अपने कॉलेज के पुरातन छात्र समारोह में कल मैंने देखा 1987 ,सिविल इंजीनियरिंग बैच के रवि राय सर को ।सिंगापुर में कुछ साल तक इंजीनियरिंग की सर्विस के बाद ,अपने देश के लिए कुछ करने का जज्बा लिए वापस चले आये ।आज वो गरीब ,अनाथ तथा असहाय बच्चों को उनका अधिकार एवं खुशियाँ दिलाने के लिए एक संस्था चला रहे है ,जिसमे उन्होंने अपना तन, मन ,धन समर्पित कर दिया ।
                  दोस्तों अपने लिए तो सभी करते है ,पर दूसरों के लिए अपना सब कुछ त्याग कर देने वाले ऐसे लोग विरले ही मिलते है ।आज इस समारोह में ,पूरी दुनिया के कोने -कोने से बहुत ऊँचे -ऊँचे पदों पर आसीन माल्वियंस आये हुए है ।निश्चय ही उनकी उपलब्धियां हमारे तथा इस कॉलेज के लिए गौरवपूर्ण है ,पर वास्तविक रोल मॉडल तो रवि सर है ।
                मशहूर शायर दुष्यंत कुमार ने कहा है -
                                                                      आज सड़कों पर लिखें है सैकड़ों नारे न देख ,
                                                                      घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।
           
                                                                      एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ ,
                                                                      आज अपने बाजुओं को देख पतवारे न देख ।।     
                 रवि सर के बच्चों के द्वारा,प्रसून जोशी के मशहूर गीत  "तारें जमीं पर" किये गए प्रदर्शन ने मंत्रमुग्ध कर लिया । इन मासूम तथा भोले बच्चों के चेहरे कितनी मासूमियत से यही तो  कह रहे थे कि आप इन्हें सम्हालिये,इनका बचपन तारों की तरह बिखर ना जाये ।खैर इनको तो इनका रहनुमा मिल गया है ,पर इस तरह के कितनों ही बच्चों को हम आज प्रतिदिन अपने जीवन में देखते है ।हमारी मेस में रोटी बाँटने वाला छोटू ,बसअड्डों ,तथा रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हुए,चाय ,पानी एवं  छोटी-छोटी चीजों को बेचते हुए  ये नन्हे -मुन्हे बच्चे, जिनका बचपन ही इनसे छीन लिया जाता है और इस का परिणाम ही होता है उनके पूरे जीवन की त्रासदी ।अपने बचपन की इन भयंकर परिस्थियों से ये उबर नहीं पाते और उनमें से ज्यादातर ज्यादातर अपराध ,वेश्यावृत्ति तथा ड्रग माफियाओं के चंगुल में पड़ जाते है और जीवन भर इसमें से निकल नहीं पाते है ।
                  आज हमारे बदलते भारत की एक तस्वीर यह दिखाती है की हम चाँद पर पहुँच गए ,अंतरिक्ष की सैर कर रहें हैं ।चारों तरफ भारत -निर्माण तथा इंडिया -शाइनिंग के गीत गाये जा रहें हैं ।हम वैश्विक शक्ति बनने की राह पर हैं ।हमारा सकल घरेलू उत्पाद बहुत तेजी से बढ़ा है ।हमारे बैज्ञानिक तथा इंजीनियर पूरी दुनिया का लोहा मनवा रहे हैं ।इसी तस्वीर का एक दूसरा स्याह पहलू भी है जहाँ असीमित भूख व बेरोजगारी दिखती है ।एक तरफ सपनों में चाँद को छूने की तमन्ना रखने वाला बचपन तो दूसरी तरफ सड़कों पर बिखरता तथा गलियों में दम तोड़ता बचपन ।एक तरफ लम्बी -लम्बी कारों में सारी  सुख -सुबिधाओं से युक्त बचपन तो दूसरी तरफ इन्ही कारों की शीशों के बाहर अदद एक रुपये की तलाश में घूमता बचपन ।ये तस्वीरें कौन से भारत का आइना दिखा रहीं हैं?
                 बच्चे ही किसी राष्ट्र व समाज का भविष्य होतें हैं ।इस तरह हमारे देश का बचपन जो सड़कों पर , स्टेशनों पर तथा दुकानों एवं घरेलू नौकरों के रूप में बिखर रहा है ,आने वाले कौन से भारत का निर्माण कर रहा है ?ये सवाल आज हमारे ,हमारी सरकार के तथा हर भारतीय के सामने है ।ऐसे समय में जब न सरकार ना प्रशासन और न ही राज्य इन मासूमों की मासूमियत को बचाने का जिम्मा लेना चाहते हैं ,रवि राय जैसे कुछ दीपक  आज भी इस इस घने अंधकार से भरे माहौल में टिमटिमा रहें हैं ।दोस्तों !आज हमारे बीच के कितने साथी कल के प्रतिभाशाली पेशेवर बनने जा रहें हैं ।आज हम यदि इन जैसा दिया बनकर ना भी उजाला फैला सकें तो भी हमें ये ख्याल रखना पड़ेगा की इस तरह के जो दिये जल रहें हैं ,उनकी लौ ना बुझने पाए ।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

मेरा गाँव ,मेरा बचपन ....

पड़ोस में उतरते हुए गुड़ की 
वो भीनी सी महक ,
दौड़ा ले जाती थी हमको ,
चेनगे की तलाश में ।

आम के बौरों के रस से ,
पेड़ों के नीचे लसलसाई पत्तियाँ ,
जो हमारे पैरों में ,
चिपक जाया करती थी ।
और उठती थी ,
एक मीठी सी महक ,
जब पुरवाई छूकर हमारे शरीर को ,
सर्र से निकल जाया करती थी ।


ओसारे में लगा हुआ ,
गौरया का इक घोंसला ,
अम्मा की नजरों से बच कर ,
जिसमे हम रोज झाँका करते थे ।
आज अंडे से बच्चे निकल गएँ होगें ,
ये सोचकर नित्य ताका करते थे ।।


कोहले में पानी भरकर ,
लटका दिए जाते थे नीम की डालियों से ,
और बिखेर दिए जाते थे ,
जमीन पर चावल के कुछ तिनके ।
सुबह होती थी ,
गौरया के चहकते आवाज से ,
कबूतरों के गुटर -गूं से और चर्खियों के अल्फाज़ से ।।

स्कूल की खाली बेला में हम ,
दूर खेतों पर निकल जाते थे।
तोड़ते थे बेर और इमलियाँ ,
सरसरे कैथों पर चढ़ जाते थे ।।
मस्टराईन के खेतों से मटर की फलियाँ तोड़कर ,
खाते हुए हम वापस आते थे ।।


वो फैली हुई सरसों के खेतों में  ,
याद आता है बीच से होकर निकलना ।
पीली -पीली अनगिनत पंखुड़ियों का ,
सर से पांव तक चिपकना ।।

ललकी गैया को चराने ,
दूर तक निकल जाना ,
वापस आकर माँ के हाथो की ,
चुपड़ी रोटी ,साग और भात खाना 


याद है जब कोकिलों के साथ ,
हम भी कूका करते थे ।
उसके चुप होने तक ,
इक संग्राम छेड़ा करते थे ।।
ये लड़ाईयाँ बदल गयी आज ,
जीवन की लड़ाई ने अपना स्थान ले लिया है ।
गाँव छूट गया, बचपन बीत गया ,
शहरों ने वो खोया सोपान ले लिया है ।।










मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

यादों के झरोंखों से.......

                रक्षाबंधन की छुट्टियों की वजह से मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग का रमन छात्रावास लगभग खाली सा हो गया है ।अधिकांश छात्र अपने घर जा चुके हैं और कुछ जाने की तैयारी में लगे हुए है। रमन भवन के छोर पर स्थित कमरा नंबर 126 में खिड़की के पास बैठा मै बाहर खेल के मैदान को तथा छात्रावास के पीछे हरे वृक्षों से आच्छादित जंगल को निहार रहा हूँ ।
                कल शाम को यह क्रीड़ाक्षेत्र लोगों से भरा हुआ था ।व्यायामशाला में लोगों का आवागमन  बास्केटबाल कोर्ट पर जमघट ,टेनिस कोर्ट पर लुत्फ़ उठाते कुछ छात्र ,क्रिकेट मैदान के चारों  तरफ बने एथेलेटिक्स सर्किट पर दौड़ लगाते युवाओं का झुण्ड तथा घास के मैदानों पर खुली हवा में योग व प्राणायाम का अभ्यास करते कुछ वरिष्ठ नागरिक इत्यादि दृश्य कल तक यहाँ देखे जाते थे ,किन्तु आज इक्का -दुक्का लोग ही मैदान में दिखाई पड़ रहे हैं ।अचानक हुए इस एक ही दिन के द्रुत परिवर्तन को देखकर ,कुछ अजीब सा एहसास मन रूपी सागर में गोते लगा रहा है ।प्रकृति का बिखरा हुआ एक अनोखा सौन्दर्य जो की किसी कवि या लेखक की परिकल्पनाओं में ही मिलता है ,आज इस खिड़की से झलक रहा है ।एक तकनीकी संस्थान के परिसर में इस दौड़ती -भागती जिन्दगी के बीच इतना शांति और सुकून मन को अत्यंत आहलादित कर रहा है।वास्तव में ,प्रकृति प्रदत्त इस दुनिया के रग -रग़ में सुन्दरता बिखरी हुई है ,अपनी भौतिक जरूरतों के पीछे भागता मनुष्य जिसे पहचान नहीं पाता है और शिमला ,कश्मीर जैसी जगहों की खाक छानता फिरता है ।थोड़ी सी ही संवेदना से ये प्रकृति के रंग पहचाने जा सकते है ,और किसी भी कोने में बैठकर महसूस किये जा सकते है ।इन संवेदनाओं के अभाव में ही आज भौतिकवादी मनुष्य इस सौन्दर्य को न तो समझ पा रहा है और ना ही महसूस कर पा रहा है ।
                 
                    आज मनुष्य अपने आप में सिमट कर रह गया है ,अपने तथा अपने परिवार की जरूरतों की खातिर उसे भयंकर प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।नित नयी चीजों का इस बाजारवाद की दुनिया में आगमन हो रहा है ,एक के बाद एक  भौतिक जरूरतों को पूरा करने की कवायद में मनुष्य खुद अपने आप से बहुत दूर चला जा रहा है ।आज वह अपने चारों तरफ एक ऐसी फंतासी ,कृत्रिम दुनिया का निर्माण कर लेना चाहता है ,जिसमे उसके द्वारा जमा किये गए इन  खिलौनों में उसे महसूस ही न हो की वह मानव है ।वह भी अपने द्वारा जुटाए गए इन खिलौनों में एक खिलौना बन कर रह जा रहा है ।इस अंधी दौड़ में संवेदनाओं  व भावनाओं का स्थान भौतिकता ले लेती है ,जिसके परिणामस्वरूप ईर्ष्या ,क्षोभ तथा तृष्णा जैसी भावनाओं का सृजन होता है ।आज हमारे समाज में यही विसंगतियां फैलती जा रही हैं ।आदमी खुद से, अपने पड़ोसियों से तथा प्रकृति से बहुत दूर चला जा रहा है ।जिसके कारण  ही प्राकृतिक आपदाओं  ,युद्ध ,आत्महत्या तथा अपराध जैसी तमाम बिभीषिकाओं का सामना उसे आज ज्यादा करना पड़ रहा है ।
                   इस भागम -भाग के बीच थोड़ा सा समय यदि हम प्रकृति-प्रेम  तथा मानवता को समर्पित कर दें तो हमारी यह भाग -दौड़ तथा नैराश्यता से भरी जिन्दगी में प्रसन्नता की लहरें उद्देलित होने लगती है ,और हमारे मन में ईर्ष्या ,लोभ व कुंठा जैसे भाव अपनी जगह नहीं बना पातें हैं ।व्यवसायी केवल  अपने हानि -लाभ की गणना करता हुआ ,सेवक केवल अपने मालिक के खुशामदी में लगा हुआ तथा विद्यार्थी अपनी किताबों से चिपका हुआ इत्यादि उदाहारण है आज की दुनिया के भयावह स्वरूप के ,जिसके कारण आज मनुष्य विनाश की तरफ भाग रहा है ।मशहूर शायर निदा फाजली ने उचित ही कहा है --

                     धूप में निकलो ,घटाओं में नहा कर देखो ।                    

                    जिन्दगी क्या है ,किताबों को हटा कर देखो ।।         

 सावन के महीने के बाद हरियाली बरबस ही हर जगह ही आच्छादित हो जाती है ।हमारा यह परिसर ,जो की अभी दो -तीन महीनों पहले उजाड़ जैसा दीखता था ,अगस्त महीने में हरा भरा हो गया है ।डूबते हुए सूरज की लालिमा पूरे मैदान पर फ़ैल गयी है ।एक्का -दुक्का मैदान पर टहलते लोग वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं ।हरी -भरी घांसों से भरे छात्रावास के प्रांगण तथा खेल के मैदान के बीच स्याह रंग की सड़क दूर तक जाती हुई  दिखाई दे रही है ,जिसके किनारे कुछ गायें तथा बकरियाँ घांस चरति हुई दिखाई दे रही है ।इन्हें देखकर बरबस ही अपने गाँव की याद ताजा हो जाती है ।
                 मैंने दरअसल पहली बार किसी त्यौहार पर घर लेट जाने का निश्चय किया है ,नहीं तो हर बार छुट्टियाँ होने से पहले ही अपना बोरिया -बिस्तर समेट लेता था ।वास्तव में हॉस्टल की इस नीरवता में प्रकृति से संवाद करने में जिस आनंद की अनुभूति हुई उसे मै  घर एक दिन पहले पहुँच कर हासिल नहीं कर सकता था ।स्वच्छंद भाव से ,अपने मन के विचारों में उड़ने में जो आनंद है ,वह कोई उत्सव या त्यौहार नहीं दे सकता ।।अंत में, किसी शायर की ये लाइनें पेश हैं -

                                              वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से ,
                                              किसको मालूम कहाँ के हैं ,किधर के हम हैं ।
                                              चलते रहते हैं कि ,चलना है मुसाफिर का नसीब ,
                                              सोचते रहते है कि ,किस राहगुजर के हम हैं ।।
                                  

               

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

दिया

घनघोर अँधेरी रातों में ,
इन तीखे झंझावातों में ।
जलता रह दीपक बुझ ना तू ,
विपरीत विकत हालातों में ।।


है काल रात्रि चंहु ओर तमस ,
सूरज का निकलना बाकी है ।
दमकी दामिनि ,अति तीव्र पवन ,
हे दिये !तू ही एकाकी है ।।


बुझ गए सकल साथी तेरे ,
आगे तूफान भयंकर है ।
गिरती उठती तेरी लौ है ,
अब और न कोई सहचर है ।।


छँट जायेगा तूफान विकट ,
सूरज का उजाला भी होगा ।
दृढ़ निश्चय रख ,संघर्ष बढ़ा ,
किसी ओर किनारा भी होगा ।।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

मुख्यमंत्री आ रहें हैं

(माननीय मुख्यमंत्री जी के कॉलेज दौरे पर ,इस राज्य सरकार के इंजीनियरिंग कॉलेज की नवनिर्माण प्रक्रिया को देखकर मन कुछ कहे बिना ना रह सका  )


मुख्यमंत्री आ रहें हैं ,मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।
छात्र ,अध्यापक ,चपरासी ,कर्मचारी ,सभी एक स्वर में गा रहे हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।


दिखते थे वार्डन सर महीनों में कभी -कभी ,
आजकल सुबह शाम हॉस्टल का चक्कर लगा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


टहलती थी गौवें ,भैसें ,बकरियाँ ,
जिस प्रांगण में दिनों -रात ,
वहां के टूटी हुई बाड़ों के तार खड़े किये जा रहे हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


चरती रहती थी रात दिन जिन घासों को, भैसें और बकरियां ,
आज उनके तने दुलारे जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


नहीं थी ट्युबलाइटें ,नहीं थे बल्ब ,
हॉस्टल के बरामदें में ,बाथरूम में ।
आज सब नए लगाये जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं 


पड़ा रहता था गोबर ,कूड़ा -कचड़ा जिन रास्तों पर ,
आज वे सुबह शाम फुहारे जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


पड़ी रहती थी कुर्सियां- मेजें ,
बाहर बरामदों में कई महीनों से ।
आज उसको अन्दर रखने वाले छात्रों पर ,जुर्माने लगायें जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


फुर्र हो जाते थे कुछ क्षण में जो वार्डबॉय ।
आज बेचारे ओवर टाइम से मारे जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं।।


अर्जियां लेकर हम घूमा करते थे जिनके पीछे -पीछे ,
"कोई समस्या है क्या आपको ?" उनके द्वारा यही सवाल  सबसे पूछे जा रहें हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं । मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।। 


स्वर्ग से कोई देवता प्रगट होने वाला हो जैसे ,
यही आस लिए कुछ हमारे गुरुजन ,
कक्षाओं में मुख्यमंत्री पाठ किये जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।। 


मेस में क्या पहनना है?
कमरे में और कमरे के बाहर क्या पहनना है? 
आज हमारे लिए ड्रेसकोड बनाये जा रहें हैं ।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।


अच्छा है मुख्यमंत्री रोज नहीं आते ,
वर्ना हम लोगों को वार्डन सर की मृदु वाणी का प्रहार सुबह शाम झेलना पड़ता ।
ड्रेसकोड का ख्याल रखना पड़ता ,
ऐसा लगता मानो हॉस्टल नहीं किसी कैदखाने में जिन्दगी जिए जा रहे हैं ।।
मुख्यमंत्री आ रहें हैं ,मुख्यमंत्री आ रहें हैं ।।
                           

                                                                       

प्रगति

नित बदलती इस धरा का रूप अब क्या हो गया है ।
थे शुशोभित हरित उपवन नाश सबका हो गया है ।।
सप्त स्वर से गूंजते वे पक्षियों के मधुर कलरव ,
मंद शीतल वायु के झोंको से विचलित पेड़ पल्लव ।
हरित उपवन से शुशोभित ,काले बदरों से अलंकृत ,
इस धरा और आसमां का रंग क्या अब हो गया है ।
नित बदलती --------------------------------------

समय बदला और ये विज्ञान का अब युग है आया ,
मानवी हित अहित ,संसाधन को अपने साथ लाया ।
इन पहलुओं को समझकर, पग बढ़ा तू इस डगर पे ,
सृजित कर यह लोक अपना धूसरित सा हो गया है ।।
नित बदलती ---------------------------------------

हो रही खोजों  से  नितदिन रो रही यह प्रकृति अपनी ,
दूषित जल- भूमि -मारुत से त्रसित यह प्रकृति अपनी
पूजते थे इस धरा को ,नमन करते आसमां को ,
क्या होगा क्या था तू मानव ,क्या तुझे अब हो गया है ।।
नित बदलती -----------------------------------------

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                         सुनामी

चलती ही जा रही थी ,
गाड़ी ये इस सफ़र में ।
मदमस्त थे मुसाफिर ,
इस राह -ऐ -जिन्दगी में ।।

तकनीक की जिस देश के ,
कायल थे दुनियावासी ।
मशगूल अपनी लय में थे ,
उस देश के निवासी ।

लोगों को क्या पता था ,
क्या घटित होगा कल भला ।
सिहरित हुई थी धरती ,
तोयधि से उठा जलजला ।

उठते हुए जलधि से ,
ये सर्प रूपी ज्वार ।
करते हुए सजीव व निर्जीव का संहार ।।

कंपकपाती हुई धरती ,
सिहरता हुआ आकाश ।
दबते, बहते ,कुचलते लोग ,
कैसा है यह विनाश ।।

विज्ञान के बनाये ,
इस शहर का ये मंजर ।
प्रकृति की लघु गर्जना से ,
हो गया है बंजर ।।

"किसलय "

                  ######## 

                    मुसाफ़िर                                                               

यादों के हंसी गुलशन में जीना सीख लेना तुम ,
हवाओ के सदिश रुकना व चलना सीख लेना तुम |
कभी खुशियों के मेले आयेंगे तुझको हंसायेगे ,
कभी गम से भरे सागर यहाँ तुझको रुलायेंगे ||
मिलेंगे हर कदम पर हर तरह के लोग इस पथ पर ,
सभी के साथ मिलकर नित्य चलना सीख लेना तुम ||
यादों के........................................................
मुसाफिर है हमें चलना है इन पथरीली राहों में ,
नहीं रुकना भयंकर ठोकरों  दुःख  की पनाहों में |
मिलेंगे दिन नए राते नयी बाते नयी पथ में ,
उनको यद् रखना और उनको याद आना तुम ||
यादों के .............   .................................
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###भेड़ और सिंह###
भेंड़े चल रही हैं ।
मालिक के पीछे ,
ऊबड़ खाबड़ और टेढ़े मेढ़े रास्तों पर ।
समतल और सीधे साधे रास्तो पर ।।
नहीं पता कहाँ जाना है ,क्या करना  है ?
इस अनवरत पथ पर कहाँ तक चलना है ??
यदि कोई भेड़ दूसरे रास्ते पर जाती है ,
मालिक की घुड़की पाती है ।
उसकी साथी भेड़े भी मुंह मोड़ लेती हैं ।
उसे निगरानी में रख मन माफिक चलवाया जाता है ,
अपना काम निकलवाया जाता है ।
यदि ऐसा नहीं है तो,
बुचडखाने भिजवाया जाता है ।
इसलिए कहता हूँ ,
तू भेड़ ना बन सिंह बन ।
जो स्वछन्द पूरे वन  में विचरण करता है ।
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